केजरीवाल का इस्तीफा -परदे के पीछे की चाल
14 फ़रवरी 2014 को दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने विधानसभा सत्र के दौरान अचानक इस्तीफा देकर सबको अचंभित कर दिया। हालाँकि उन्होंने पहले ही यह घोषणा कर दी थी की यदि हम जनलोकपाल एवं स्वराज कानून पास नहीं करा पाये तो सत्ता छोड़ देंगे, लेकिन इतनी आसानी से कोई राजनेता गद्दी छोड़ देगा ऐसी किसी को उम्मीद नहीं थी।
केजरीवाल का इस्तीफा कई दिनों तक मीडिया में चर्चा का विषय बना रहा और उनके इस्तीफे को लेकर कई तरह के कयास लगाये गए। लेकिन इस्तीफे के पीछे केजरीवाल की चाल कुछ अलग ही थी। पहले इस्तीफे के पीछे उनके मंशा को लेकर जो कयास लगाये गए उनपर चर्चा करते है।
1) मुख्यमंत्री बनने के बाद अब केजरीवाल को प्रधानमंत्री बनने की लालसा हो गई थी।
भाजपा के प्रधान मंत्री पद के दावेदार श्री नरेंद्र मोदी भी उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे। जब मोदीजी मुख्यमंत्री रहते प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो सकते है तो केजरीवाल क्यों नहीं? केवल प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए कोई मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ दे ये सोचना मूर्खता है। जिस तरह मोदीजी गुजरात के मुख्यमंत्री होते हुए पुरे देश में लोकसभा चुनावो के लिए प्रचार कर रहे थे केजरीवाल भी कर सकते थे।
देश में उस समय मोदीजी के पक्ष में लहर थी यह सर्वविदित था। इसके बावजूद मोदी जी ने दो जगह से चुनाव लड़ा – बरोडा और वाराणसी। इसके विपरीत केजरीवाल ने केवल एक जगह से चुनाव लड़ा और वो भी उस जगह जहा से जितने की कोई उम्मीद नहीं थी।
नरेंद्र मोदी बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के घोषित दावेदार थे। जबकि आम आदमी पार्टी ने ऐसी कोई घोषणा नहीं की थी।
2) केजरीवाल दिल्ली की जनता को किये हुए वादों को पूरा नहीं कर पाये इसलिए भाग गए।
सरकार बनने तक कांग्रेस, बीजेपी और मीडिया तक यही कह रहा था की अरविन्द केजरीवाल ने चुनावो के दौरान जो वादे किये वह वास्तविक नहीं है। लेकिन सरकार बनने के बाद केजरीवाल ने जिस फुर्ती के साथ निर्णय लिए उसे उनके विरोधी भी नहीं झुटला सकते। पूरी दिल्ली में 700 लीटर प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन मुफ़्त पानी देने से सरकार पर करीबन 300 करोड़ प्रतिवर्ष का अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ने वाला था। इसे रोकने के लिए उन्होंने सुरक्षा व्यवस्था होने वाले खर्च में कटौती कर दी।
दिल्ली में बिजली के दाम आधे हो गए। बिजली कम्पनियो के ऑडिट (जिसे कांग्रेस बीजेपी दोनों असंभव बता रहे थे) के आदेश जारी किये गए। भ्रष्टाचार रोकने के लिए हेल्प लाइन जारी की गई। रिश्वत मांगने वालो को स्टिंग ऑपरेशन कर पकड़ा जाने लगा और तुरंत कारवाही होने लगी। दिल्ली में कोई सरकारी कर्मचारी रिश्वत मांगने की हिम्मत नहीं कर पाता था। आम आदमी को रोजाना झेलने पड़ने वाली रिश्वतखोरी में भारी कमी आई।
ड्यूटी पर शहीद होने वाले पुलिस कर्मी को एक करोड़ रुपये की सहायता दी गई। पुरानी बसों को रैन बसेरे में तब्दील किया गया। दिल्ली की सभी सरकारी स्कुलो की मैपिंग की गई।
केवल 49 दिन चली इस सरकार ने जिस तेजी के साथ अपने वादों को पूरा कीया वो ऐतिहासिक है। भारत के राजनैतिक इतिहास में ऐसी कोई मिसाल नहीं।
यह सब जनता के लिए एक सुनहरे सपने जैसा था। इसके बाद यह कहना की केजरीवाल अपने वादे पुरे नहीं कर पाये इस लिए जिम्मेदारी से भाग गए ये भी मूर्खता होगी। वास्तविकता ये थी केजरीवाल सरकार की देखादेखी हरयाणा, महाराष्ट्र एवं अन्य सरकारे भी बिजली दरो में कटौती की तैयारी करने लगी थी। केजरीवाल की सादगी की बढती लोकप्रियता देखकर राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुधंरा राजे ने भी सरकारी बंगला न लेने और आम आदमी की तरह सिग्नल पर रुकने की घोषणा कर दी। यह वो समय था जब केजरीवाल राजनीति के शातिर खिलाडीयो को नए तरह की राजनीति सीखा रहे थे। कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गाँधी, बीजेपी के बड़े नेता आडवाणी और यहाँ तक की संघ भी अपने नेताओ को केजरीवाल से सिखने की सलाह दे रहे थे।
अंदर की बात
चुनावो से पहले फ़रवरी में हुई राष्ट्रिय कार्यकारिणी की बैठक में मैं सम्मिलित हुआ था। केजरीवाल की व्यक्तिगत राय थी पुरे देश में 25-30 लोकसभा प्रत्याशी उतारे जाये। उस बैठक में कई राज्यो के प्रतिनिधि आये थे। अधिकांश लोग चाहते थे की अधिक से अधिक प्रत्याशी उतारे जाये। मेरी भी यही राय थी।
उस बैठक में श्री शांति भूषण जी ने बड़े प्रभावशाली तरीके से अधिक प्रत्याशी उतारने की हमारी राय को समर्थन दिया। अधिकतर लोगो का मानना था की देश में इस समय सकारात्मक ऊर्जा है। हमें इस समय अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटना चाहिए।
अरविन्द केजरीवाल की मंशा साफ थी। वो लोकसभा चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे। दिल्ली में एक बेहतर शासन देकर मिसाल बनाना उनका लक्ष्य था। उन्हें विश्वास था की दिल्ली में जनहित के उद्देश् से, जनभागीदारी के साथ सरकार चला कर सारे देश में अच्छा सन्देश दिया जाये ताकि अन्य प्रदेशो की सरकारे भी दबाव में आकर बेहतर कार्य करे।
केजरीवाल के विरोध के बावजूद 400 से अधिक प्रत्याषी क्यो उतारे?
अधिक प्रत्याशी उतारने के पीछे कुछ तर्क थे। सबसे बड़ा कारण था हमारी नैतिक जिम्मेदारी। हमने देश को एक राजनैतिक विकल्प देने के उद्देश् से पार्टी बनाई थी। हमारी नैतिक जिम्मेदारी थी की हम अधिक से अधिक लोकसभा क्षेत्रो में साफ छबि के लोकप्रिय उम्मीदवारो को उतार जनता को एक विकल्प दे। काफी हद तक हम इसमे सफल रहे। हमारे उम्मीदवारो के सामने दबाव में आकर भी यदि अन्य पार्टिया अच्छे लोगो को चुनावी मैदान में उतारे तो राजनैतिक परिवर्तन के हमारे मुख्य उद्देश् की दिशा में एक कदम होगा फिर जित चाहे किसी भी प्रत्याशी की हो। इस पैमाने पर हम विफल रहे। कई क्षेत्रो में हमारे प्रत्याशियो के सामने अपराधियो और भ्रष्ट नेताओ को उतारा गया और वो चुनाव जीते भी। इसके कारणों पर चर्चा अन्य किसी लेख में करेंगे।
कांग्रेस के समर्थन से सरकार क्यो बनाई ?
सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी ने अल्पमत की सरकार बनाने से साफ मना कर दिया (जबकि वैसी ही स्थिति में बीजेपी ने हाल ही में महाराष्ट्र में सरकार बनाई है). बीजेपी का यह रुख साफ तौर से आम आदमी पार्टी द्वारा स्थापित नैतिक राजनीति का दबाव था. बीजेपी, कांग्रेस और पुरे देश का मीडिया सरकार बनाने के लिए केजरीवाल पर दबाव बना रहा था। दिल्ली में जनता की राय ली गई। जनादेश का सम्मान करते हुए केजरीवाल ने कांग्रेस और बीजेपी दोनों पार्टियो को खुले पत्र द्वारा मुद्दो पर आधारित समर्थन करने का आवाहन किया। देश के इतिहास में पहली बार परदे की पीछे सत्ता की सौदेबाजी के बजाय जनता के बीच जनता की राय से निर्णय लिया गया।
केजरीवाल की क्षमता पर सवाल उठने लगे थे के ये सरकार नहीं चला सकते सिर्फ आरोप लगा सकते है। दूसरी तरफ दिल्ली की जनता थी जिसने मीडिया के सभी कयासों को झुटलाते हुए केजरीवाल में विश्वास जताया था। कांग्रेस या बीजेपी से समर्थन न लेने के संकल्प के बावजूद इस वैकल्पिक राजनीति में जनता का विश्वास बनाये रखने हेतु जनादेश का सम्मान करते हुए अल्पमत की सरकार बनाई गई। केजरीवाल ने दिल्ली की बागडोर संभाली।
राजनीति में नौसिखिये लोगो ने जिस तरह सरकार चलाई उसे सारी दुनिया ने देखा। कांग्रेस बीजेपी द्वारा असंभव कही जाने वाले कई निर्णय लिए। दिल्ली ही नहीं बल्कि देश की जनता सुषासन की उस मिसाल को भुला नहीं सकती। जनता से किये हुए अधिकतर वादे केजरीवाल सरकार ने केवल 45 दिनो में पुरे कर दिए। देश के राजनैतिक इतिहास में ये एक मिसाल है। अक्सर घोषणापत्र में किये वादो को सरकार 5 साल में भी पूरा नहीं करती। हर बार चुनावो के पहले पार्टियो द्वारा जारी किया घोषणा पत्र देखे तो अधिकतर बाते पिछले 67 सालो से हर पार्टी कहते आ रही है लेकिन सत्ता में आने के बाद उन्हें भूल जाती है।
14 फ़रवरी 2013 – कांग्रेस बीजेपी की साजिश
2 मुख्य मुद्दो को लेकर आम आदमी पार्टी बनाई गई थी। जनलोकपाल कानून जिससे घोटालो में लिप्त नेताओ और बड़े अफसरो के खिलाफ कारवाही की जा सके। और स्वराज कानून जिससे हर बड़े निर्णय में जनता की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके। केजरीवाल द्वारा जारी खुले पत्र में भी इन दोनो मुद्दो पर समर्थन माँगा गया था।
कांग्रेस ने इन मुद्दो पर समर्थन तो दे दिया लेकिन जब केजरीवाल सरकार ने जनलोकपाल बिल को विधानसभा में पेश करने की कोशिश की तो बीजेपी के साथ हो गई। विधान सभा में कांग्रेस और बीजेपी ने कहा की हम 42 विधायक है और आप 28, हम इसे पेश नहीं होने देंगे।
अपनी इस करतूत को छुपाने के लिए संविधान के जटिल तर्क दिए। सरकार को समर्थन देते समय कांग्रेस ने यह विरोध क्यो नहीं किया? यह सवाल कांग्रेस से न बीजेपी ने किया न मीडिया ने। इससे पहले दिल्ली विधानसभा में ही बिना राज्यपाल की अनुमति के बिल पेश भी किये गए और पास भी। इससे पहले लोकसभा में भी ऐसे कई मौके आये जब पेश किये गए बिल की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई। कई मौको पर सरकार द्वारा पारित कानूनो को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। लेकिन 14 फ़रवरी को कांग्रेस और बीजेपी ने जनलोकपाल बिल को विधानसभा में पेश तक नहीं होने दिया। आम तौर पर एक दूसरे के विरोधी माने जाने वाले कांग्रेस और बीजेपी ने मिलकर जनलोकपाल बिल पेश करने के सरकार के प्रस्ताव को सदन में ठुकरा दिया।
केजरीवाल की गलती
राजनीति में नौसिखिये केजरीवाल, कांग्रेस और बीजेपी की चाल समझ नहीं पाये। दोनों पार्टियो ने मिलकर केजरीवाल को उस मोड़ पर खड़ा कर दिया था जहा चित भी उनकी थी और पट भी उनकी। इस्तीफा न दे तो केजरीवाल को सत्ता का लालची और धोकेबाज बताया जाता और इस्तीफा दे तो भगोड़ा।
उस स्थिति में केजरीवाल यदि तुरंत इस्तीफा न दिया होता तो कांग्रेस बीजेपी और मीडिया खुद केजरीवाल का इस्तीफा मांगते। साथ ही केजरीवाल को इस्तीफा देने का निर्णय लेने से पहले जनता से राय लेनी चाहिए थी। उस दौर में जनता हर निर्णय में केजरीवाल के साथ थी। लेकिन इस जल्दबाजी से विरोधीयो को मौका मिल गया।
इस्तीफा क्यों?
राजनीति को समाजसेवा मानने वाले और नैतिकता का अर्थ समझने वालो के लिए यह प्रश्न ही नहीं है। यह प्रश्न बनाया गया है। यदि अरविन्द केजरीवाल उस स्थिति में इस्तीफा नहीं देते तो उनकी इससे भी कड़ी आलोचना होती। यही मीडिया और यही पार्टीया उस स्थिति में उन्हें सत्ता को लोभी कहती जो जनता को किये वादों को पूरा न कर पाने बावजूद सत्ता में बैठा हुआ है।
यदि इस्तीफा देने से कोई भगोड़ा हो जाता है तो क्यों हम मनमोहन सिंह से इस्तीफा मांगते रहे जब वो 100 दिनों में महंगाई कम करने का वादा पूरा नहीं कर पाये। दंगे न रोक पाने के लिए क्यों पूरा देश सालो तक तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री का इस्तीफा मांगता रहा? रेल हादसा नहीं रोक पाने की नैतिक जिम्मेदारी लेकर कुर्सी छोड़ने वाले तत्कालीन रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री को किसी ने भगोड़ा नहीं कहा।
केजरीवाल का इस्तीफा – एक मौका
केजरीवाल का इस्तीफा एक मौका था इस देश की राजनीति को बदलने का। हर बार जब सरकार विफल होती है या जनता को धोका देती है तब विपक्ष और मीडिया इस्तीफे की मांग करता है – नैतिक आधार पर इस्तीफा। लेकिन देता कोई नहीं है। कई दशको बाद किसी ने सत्ता के मोह में आये बिना नैतिकता की मिसाल पेश की थी।
यह मौका था देश के सामने अन्य सरकारो पर दबाव बनाने का। सत्ता में आने के बाद अपने चुनावी घोषणापत्र को भुला देने वाले सत्तालोलुप्त नेताओ से इस्तीफा मांगने का।
लोकतंत्र की आवाज समझे जाने वाले मीडिया ने इस मौके को देशहित में भुनाने के बजाय नैतिकता को भगोड़ापन करार दे दिया। बार बार बोला जाये तो झूट भी सच लगने लगता है। एक साल पहले देश की जनता जाग चुकी थी। आज हमारी सोच को फिर उसी पुराने ठर्रे वाली राजनीति के पक्ष में लाने साजिश जारी है। इस विषय में और समझना चाहे तो यह लेख पढ़े।
इस देश के राजनैतिक भविष्य को लेकर केजरीवाल, योगेन्द्र यादव जैसे लोगो की सोच इसे अपराध और धन के प्रभाव से मुक्त करने, व्यवसाय की बजाय समाजसेवा बनाने, जनता की भागीदारी बढ़ाने और राजनीति से लुप्त हो चुकी नैतिकता को फिर लौटाने की है। वो इस देश में फिर से वही राजनीति स्थापित करना चाहते है जो अम्बेडकर, पटेल और शास्त्रीजी जैसे नेताओ ने की थी।
आज फिर मौका है देश की राजनीति को हमेशा के लिए बदलने का, राजनीति में नैतिकता लाने का, राजनीति को अपराध और धन के प्रभाव से बचाने का, धर्म और जाती पर आधारित बंटवारे की राजनीति को समाप्त करने का, जन भागीदारी से चलने वाली सरकार बनाकर इस देश में सच्चे लोकतंत्र की एक मिसाल पेश करने का। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की पूर्ण बहुमत से सरकार बनते ही फिर वही बदलाव आएगा और सच्चे अर्थो में भ्रष्ट नेताओ और उद्योगपतियो के बजाय आम आदमी के अच्छे दिन आएंगे।
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